उत्तराखण्डी समाज अपनी संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के लिए जाना जाता है। यहां का साज आज भी कानून से अध्कि अपनी लोक संस्कृति और सामाजिक मान्यताओं से संचालित होता है। न्याय देवता के रूप में उत्तराखण्ड विशेषकर कुमाऊॅ मण्डल में पूजे जाने वाले ग्वल देवता जो गोलू देवता के नाम से भी जाने जाते ैहैं। वैसे तो चंपावत से लेकर अल्मोड़ा तक विभिन्न स्थानों पर इनके मंदिर है। अल्मोड़ा से 6 किमी दूरी पर स्थित चितई ग्वल मंदिर देश दुनिया में विख्यात है। चितई पंत गांव में बसा यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है। गुजरात से यहां दवा व्यवसाय करने पहुंचे पंतों के पूर्वजों ने स्वप्न के आधर पर इस मंदिर का निर्माण करवाया। हिमांचल प्रदेश में मंशा देवी मंदिर की तर्ज पर यहां भी लाखों की संख्या में श्र(ालु प्रतिवर्ष आते हैं। क्षत्राीय समाज के अराध्य ग्वल देवता को अब सभी वर्गो के लोग मानने और पूजने लगे हैं। मान्यता है कि एक पराक्रमी, न्यायप्रिय और साहसी राजा के रूप में ग्वेल देवता ने यहां से नेपाल तक अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने तथा हर जरूरत मंद के लिए मसीहा के रूप में कार्य किया। अपनी इसी छवि के कारण वे लोगों के बीच पूज्य हांे गये। कुमाऊॅ के लोक देवता के रूप में पूजे जाने वाले ग्वल देवता को गोलू, गैल्ल,चौघानी गोरिया, गोरिल आदि अनेक नामों से जाना जाता है। बौरारो पटटी के चौड़, भीमताल के निकट घोड़ाखाल, गरूड़, भनारी गांव, बसौट गांव, गागरीगोल, रानीबाग, मानिल सहित अनेक स्थानों पर इनके मंदिर है। चंपावत स्थित गोल्ल चौड़ का मंदिर इनका मूल मंदिर माना जाता है। जनगीतों, जागर, व कहावतों में गोलू की श्रुति की जाती है ओर उन्हें घर-घर पूजा जाता है। मान्यता है कि चंपावत के राजा हलराई के पौत्रा और झलराई के पुत्रा की पैदाईश के पीछे षड़यंत्रा किया गया। कथाकारों के अनुसार राजा की सात रानियांे से संतान न होने पर आठवीं रानी से जब ग्वल पैदा हुए तो अन्य रानियों ने ईष्यावश उन्हें पैदा होती ही बक्से में डाल पानी में बहा दिया। आठवीं रानी की आंखों में पटटी बांध्कर उसे यह बताया गया कि तूने सिलबटटे को जन्म दिया है। बहाया गया नवजात शिशु एक निः संतान ध्ीवर के जाल मंें पफंस गया और उसने उसे पाला। तेजस्वी बालक ने जब कुछ बड़ा होने पर ध्ीवर से जब घोड़ा मांगा तो उसने लकड़ी का घोड़ा उसे पकड़ा दिया। एक बार वह बालक उस लकड़ी के घोड़े को लेकर पानी पिलाने नदी तट पहुंचा,वहां राजा से उसकी मुलाकात हुई तो राजा ने उससे पूछा कि लकड़ी का घोड़ा भी पानी पीता है? एैसे में ग्वेल ने जवाब दिया कि जब रानी सिलबटटा पैदा कर सकती है तो लकड़ी का घोड़ा भी पानी पी सकता है। इस बात से ग्वेल के जन्म का राज खुला और राजा ने उसे पुत्रा के रूप में स्वीकार किया। एक जन प्रीय,उदार और पराक्रमी राजा के रूप में ग्वेल कुमाऊॅ के गांव गांव तक विख्यात हो गये। मान्यता है कि किसी भी प्रकार के अन्याय,उपेक्षा और पीड़ा मंे श्ऱ(ालु गोलू के दरबार जाता है ओर अपनी मन्नत वहां लिख कर टंाग आता है। न्याय देवता के रूप में विख्यात गोलू देवता उसकी मननत जरूर पूरी करते है। आज आदमी तो दूर अनेकों बार हड़ताली कर्मचारी संगठन भी अपनी मांगों को यहां टांगकर न्याय की गुहार लगाते हैं। उत्तराखण्ड में वनों को बचाने के लिए तमाम उपायों में स्वयं को विपफल पाते हुए वन विभाग ने स्वयं वन ग्वेल देवता को समर्पित किए हैं।एसएसबी सहित अनेक संगठनों ने समय समय पर इस मंदिर के जीर्णोधर और सौदर्यीकरण का कार्य भी करवाया है। ध्ीरे-ध्ीरे प्रदेष सरकार की इसका महत्व समझने लगी है। राज्य सरकार द्वारा बीते वर्श यहां महोत्सव भी करवाया था। वर्तमान में गायत्राी परिवार सहित अनेक संगठन यहां से बली प्रथा को समाप्त करने को आंदोलन भी संचालित कर रहे हैं। अल्मोड़ा,पिथौरागढ़,राजमार्ग में स्थित इस मंदिर में लाखों लोगों की अटूट आस्था और विष्वास है। इसी के निकट डाना गोलू का भी मंदिर है। एक पर्यटन और धर्मिक स्थल दोनों के रूप में इस स्थान को महत्व आऐ दिन बढ़ता जा रहा है।
नसीम अहमद
अल्मोड़ा न्यूज
सोमवार, 3 जनवरी 2011
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
हर गांव में तीन एनजीओ
राजेंद्र पंत 'रमाकांत'
उत्तराखण्ड में पर्यावरण,जल,जंगल और जमीन के संरक्षण एवं संवर्धन के नाम पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों की घुसपैठ बढ़ रही है। सरकार की निर्भरता लगातार इस संगठनों पर बढ़ती जा रही है। अधिकतर काम सरकार एनजीओ से करा रही है।
इससे जहां सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने का काम करती है,वहीं ऐसे संगठनों को फलने-फूलने का मौका भी मिल रहा है। अब स्थिति यह है कि पूरे राज्य में जितने गांव हैं,उसके तिगुने एनजीओ हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य के प्रत्येक गांव में औसतन तीन संगठन काम कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में राज्य बनने से पहले इन संगठनों की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पर्यावरण संरक्षण,पानी के संवर्धन से लेकर जन कल्याणकारी परियोजनाओं तक उनके जुडऩे की लंबी फेहरिस्त रही है। धीरे-धीरे वे यहां के विकास की अगुवाई के सबसे बड़े पुरोधा बन गये।
इस समय राज्य में पचास हजार के करीब स्वंयसेवी संगठन कार्य कर रहे हैं। उन्हें देश-विदेश की वित्तीय संस्थाओं के अलावा सरकार भी काम देती है। इस समय राज्य एनजीओ के लिए सबसे मुनाफा देने वाली जगह साबित हो रही है। यहां किसी उद्योग या उत्पादन का नहीं, बल्कि समाजसेवा से एनजीओ लाभ कमा रहे हैं।
राज्य में स्वयंसेवी संस्थाओं के आंकड़ों में देखें तो इस समय तेरह जिलों में कुल 49954संस्थाएं जनसेवा में लगी हैं। यह आंकड़ा बहुत दिलचस्प है कि राज्य में कुल गांवों की संख्या 17हजार के आसपास है। अर्थात प्रत्येक गांव में तीन एनजीओ कार्यरत हैं। सरकारी संरक्षण में फलते-फूलते एनजीओ अब पहाड़ की दशा-दिशा तय करने लगे हैं।
एक तरह से एनजीओ एक नई इंडस्ट्री के रूप में स्थापित हो गये हैं। इस समय पहाड़ में मौजूद हजारों एनजीओ उन सारे कामों में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो सरकार ने अपने विभागों के माध्यम से कराने थे। पर्यावरण, महिला कल्याण, शिक्षा, पौधारोपण, स्वास्थ्य, एड्स, टीवी और कैंसर के प्रति जागरूकता पैदा करने से लेकर यहां की सांस्कृतिक विरासत को बचाने तक का ठेका इन्हीं संगठनों के हाथों में है।
एनजीओ की जिलेवार संख्या
देहरादून 8249
हरिद्वार 4350
टिहरी 5483
पौड़ी 5292
रुद्रप्रयाग 1357
चमोली 2885
उत्तरकाशी 3218
उधमसिंहनगर 4654
पिथौरागढ़ 3203
बागेश्वर 940
अल्मोड़ा 4166
चम्पावत 806
नैनीताल 5351
कुल योग 49954
यही कारण है कि पहाड़ की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से नये और काल्पनिक खतरों से बचने के लिए फंडिंग एजेंसियों और सरकार से बड़े बजट पर हाथ साफ किया जाता है। असल में सरकारी तंत्र की नाकामी और कार्य संस्कृति ने इस तरह की समाजसेवा की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया है।
जहां सरकार के पास जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए भारी-भरकम विभाग और ढांचागत व्यवस्था है,वहीं इन कामों को करने के लिए सरकार स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेती है। दुनिया के विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों में घुसपैठ बनाने के लिए एक रास्ता निकाला।
इनमें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए वह एक जनपक्षीय मुखौटा भी ओढ़ते हैं। विश्व बैंक और अन्य बड़ी फंडिंग एजेंसियों के माध्यम से आने वाले पैसे को उसी तरह खर्च किया जाता है, जैसा वह चाहते हैं। यही कारण है कि जिन कामों को सरकार ने करना था, वे अब इन संगठनों के हाथों में हैं।
पहाड़ में एनजीओ की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं, उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।
नब्बे के दशक में अल्मोड़ा में कार्यरत ‘सहयोग’संस्था ने जिस तरह पहाड़ के सामाजिक ताने-बाने को एक साजिश के तहत तोडऩे की रिपोर्ट तैयार की थी, उसका भारी विरोध हुआ था। कमोबेश आज भी यही स्थित है। अब एड्स जागरूकता के नाम पर यदा-कदा जमीनी सच्चाई से दूर रिपोर्ट तैयार कर उसके खिलाफ जागरूकता लाने के नाम पर भारी फर्जीवाड़ा हो रहा है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पहाड़ में जिन मामलों को लेकर ये संगठन काम करते रहे हैं, उन्हें पिछले पच्चीस-तीस सालों में ज्यादा नुकसान हुआ है। यहां की आंदोलन की धार को कुंद करने का काम भी ये कर रहे है।
यदि पहाड़ में स्वयंसेवी संगठन यहां की तस्वीर बदल रहे होते तो एक गांव में औसतन तीन से ज्यादा एनजीओ इस प्रदेश को स्वावलंबी ही नहीं,बल्कि दुनिया के बेहतर देशों में शुमार कर सकते थे। सरकार और एनजीओ का यह गठजोड़ कहां जाकर समाप्त होगा, यह आने वाला समय बतायेगा, लेकिन लगातार बढ़ते इन संगठनों पर समय रहते लगाम लगाने की जरूरत है।
(पाक्षिक पत्रिका जनपक्ष आजकल से साभार प्रकाशित )
राजेंद्र पंत 'रमाकांत'
उत्तराखण्ड में पर्यावरण,जल,जंगल और जमीन के संरक्षण एवं संवर्धन के नाम पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों की घुसपैठ बढ़ रही है। सरकार की निर्भरता लगातार इस संगठनों पर बढ़ती जा रही है। अधिकतर काम सरकार एनजीओ से करा रही है।
इससे जहां सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने का काम करती है,वहीं ऐसे संगठनों को फलने-फूलने का मौका भी मिल रहा है। अब स्थिति यह है कि पूरे राज्य में जितने गांव हैं,उसके तिगुने एनजीओ हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य के प्रत्येक गांव में औसतन तीन संगठन काम कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में राज्य बनने से पहले इन संगठनों की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पर्यावरण संरक्षण,पानी के संवर्धन से लेकर जन कल्याणकारी परियोजनाओं तक उनके जुडऩे की लंबी फेहरिस्त रही है। धीरे-धीरे वे यहां के विकास की अगुवाई के सबसे बड़े पुरोधा बन गये।
इस समय राज्य में पचास हजार के करीब स्वंयसेवी संगठन कार्य कर रहे हैं। उन्हें देश-विदेश की वित्तीय संस्थाओं के अलावा सरकार भी काम देती है। इस समय राज्य एनजीओ के लिए सबसे मुनाफा देने वाली जगह साबित हो रही है। यहां किसी उद्योग या उत्पादन का नहीं, बल्कि समाजसेवा से एनजीओ लाभ कमा रहे हैं।
राज्य में स्वयंसेवी संस्थाओं के आंकड़ों में देखें तो इस समय तेरह जिलों में कुल 49954संस्थाएं जनसेवा में लगी हैं। यह आंकड़ा बहुत दिलचस्प है कि राज्य में कुल गांवों की संख्या 17हजार के आसपास है। अर्थात प्रत्येक गांव में तीन एनजीओ कार्यरत हैं। सरकारी संरक्षण में फलते-फूलते एनजीओ अब पहाड़ की दशा-दिशा तय करने लगे हैं।
एक तरह से एनजीओ एक नई इंडस्ट्री के रूप में स्थापित हो गये हैं। इस समय पहाड़ में मौजूद हजारों एनजीओ उन सारे कामों में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो सरकार ने अपने विभागों के माध्यम से कराने थे। पर्यावरण, महिला कल्याण, शिक्षा, पौधारोपण, स्वास्थ्य, एड्स, टीवी और कैंसर के प्रति जागरूकता पैदा करने से लेकर यहां की सांस्कृतिक विरासत को बचाने तक का ठेका इन्हीं संगठनों के हाथों में है।
एनजीओ की जिलेवार संख्या
देहरादून 8249
हरिद्वार 4350
टिहरी 5483
पौड़ी 5292
रुद्रप्रयाग 1357
चमोली 2885
उत्तरकाशी 3218
उधमसिंहनगर 4654
पिथौरागढ़ 3203
बागेश्वर 940
अल्मोड़ा 4166
चम्पावत 806
नैनीताल 5351
कुल योग 49954
यही कारण है कि पहाड़ की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से नये और काल्पनिक खतरों से बचने के लिए फंडिंग एजेंसियों और सरकार से बड़े बजट पर हाथ साफ किया जाता है। असल में सरकारी तंत्र की नाकामी और कार्य संस्कृति ने इस तरह की समाजसेवा की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया है।
जहां सरकार के पास जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए भारी-भरकम विभाग और ढांचागत व्यवस्था है,वहीं इन कामों को करने के लिए सरकार स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेती है। दुनिया के विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों में घुसपैठ बनाने के लिए एक रास्ता निकाला।
इनमें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए वह एक जनपक्षीय मुखौटा भी ओढ़ते हैं। विश्व बैंक और अन्य बड़ी फंडिंग एजेंसियों के माध्यम से आने वाले पैसे को उसी तरह खर्च किया जाता है, जैसा वह चाहते हैं। यही कारण है कि जिन कामों को सरकार ने करना था, वे अब इन संगठनों के हाथों में हैं।
पहाड़ में एनजीओ की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं, उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।
नब्बे के दशक में अल्मोड़ा में कार्यरत ‘सहयोग’संस्था ने जिस तरह पहाड़ के सामाजिक ताने-बाने को एक साजिश के तहत तोडऩे की रिपोर्ट तैयार की थी, उसका भारी विरोध हुआ था। कमोबेश आज भी यही स्थित है। अब एड्स जागरूकता के नाम पर यदा-कदा जमीनी सच्चाई से दूर रिपोर्ट तैयार कर उसके खिलाफ जागरूकता लाने के नाम पर भारी फर्जीवाड़ा हो रहा है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पहाड़ में जिन मामलों को लेकर ये संगठन काम करते रहे हैं, उन्हें पिछले पच्चीस-तीस सालों में ज्यादा नुकसान हुआ है। यहां की आंदोलन की धार को कुंद करने का काम भी ये कर रहे है।
यदि पहाड़ में स्वयंसेवी संगठन यहां की तस्वीर बदल रहे होते तो एक गांव में औसतन तीन से ज्यादा एनजीओ इस प्रदेश को स्वावलंबी ही नहीं,बल्कि दुनिया के बेहतर देशों में शुमार कर सकते थे। सरकार और एनजीओ का यह गठजोड़ कहां जाकर समाप्त होगा, यह आने वाला समय बतायेगा, लेकिन लगातार बढ़ते इन संगठनों पर समय रहते लगाम लगाने की जरूरत है।
(पाक्षिक पत्रिका जनपक्ष आजकल से साभार प्रकाशित )
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
< हमारी कथनी और करनी में फर्क है <
मैं आज बहुत गर्व महसूस कर रहा हू क्यों कि मुझे मेरी कथनी और करनी में फर्क दिखाई दे रहा है। मैं वो हरगिज नहीं करना चाहता जो मैं कहता हॅ। अब आप इस बात पर ज्यादा सोच विचार मत करिये कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हॅं। मैं नेता बनना चाहता हॅ....। शायद यही न्यूनतम् योग्यता है। मैं अब उन बातों को कहना भी सीख गया हू जिन्हें हमारे नेता कभी भूल कर भी हटाना नहीं चाहते। देखो मैंने कहना भी सीख लिया है -
हम गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि को जड़ से हटाना चाहते हैं (पर हम तो शायद उस पेड़ को भी हटाना नहीं चाहेंगे जिसके जड़ हटाने की बात हम कह रहे हैं) मैं अब यह पूर्णतया कह सकता हू कि मैंने एक सफल नेता की न्यूनतम् योग्यता अर्जित कर ली है - मेरी कथनी और करनी में फर्क है।
पर असल में अब मुझे उन बातों पर ध्यान देना होगा जिससे मैं एक सफल नेता बन सकूं जो अपनी पार्टी के काम आये ना कि देश और समाज के लोगों के। मुझे एक सफल नेता बनने के लिये मूलभूत मुद्दों पर ज्यादा जोर देना होगा-
.money (बाप बढ़ा ना भैया सबसे बढ़ा रूपया)
.vote bank (अनपढ़ का ज्ञान पढे़ लिखे का अभिमान)
.religion (वोट पाने का एक आसान और अहम रास्ता)
मेरे लिये पैसा पाने का लालच उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की वोट पाने का, पैसा मुझे वोट दिला सकता है पर वोट पैसा नहीं।
इसलिये तो मैं पॉस्को, वेदान्ता आदि बड़ी कम्पनियों को भविष्य में और लाभ दिलाने की सोच रहा हू। उसके लिये चाहे मुझे अपनी आम जनता से ही, जिसे हमारे वर्तमान नेता ने माओवादी कहा है युद्ध ही क्यों ना करना पडे़। भविष्य में यदि मैं उन्हें देशद्रोही भी कहना चाहूं तो मुझे कोई हर्ज नहीं।
यह माओवादी रूपी आदिवासी मेरे लिये बहुत फायदे का है। एक तरफ जहां अधिकतर लोग जो कि सिर्फ इलैक्ट्रोनिक मीडिया या अन्य बातों को तवज्जो देते हैं और ये मान लेते हैं कि हमने जो वॉर अगेन्सट नक्सलाईट छेड़ा है वह जायज हैए और हमारा वोट बैंक बढ़ाने मं एक सकारात्मक पहलू है। दूसरी तरफ जो वोट हमारे विरूद्ध नक्सलाईटस के पास है वह वोटिंग पोल के दौरान सामने कदापि नहीं आ सकता क्यों कि हमने कठपुतलियों का एक ऐसा बन्दूकी बेड़ा(आर्मी) सामने खडा़ कर दिया है जो हमारे लिये डिफेन्सिव और उनके लिये ऑफेन्सिव साबित हो रहा है। ये बन्दूकी बेड़ा हमारे लिये कारगर साबित हो रहा है। एक तरफ वहां के आदिवासियों को (जिसे अब जनता हमारी आवाज में नक्सलाईट पुकारती है) अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने में मुश्किल पैदा हो रही है वहीं दूसरी तरफ बन्दूकी कठपुतलियां और आदिवासियों के बीच युद्ध के दौरान बन्दूकी बेडे़ के जवान मारे जा रहे हैं उससे आम जनता में आदिवासियों के प्रति आक्रोश और तेज हो रहा है और हमारा नक्सलाईट रूपी आदिवासी कथन सत्य होता दिखाई दे रहा है।
हम उन मतदाताओं पर ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं जो कि हमने गरीब, असाक्षर और कमजोर बनाये हैं क्यों कि वही तो हमारे देश के जटिल राजनीतिक मुद्दे हैं जो कि हमें राजनीति करने में मदद करते है।
कोई पागल नेता ही उन मुद्दों को देश से मिटाना चाहेगा... जिसको मिटाने का संकल्प हम हर समय लेते हैं। हमें उन मतदाताओं से वोट की अपेक्षा नहीं है जो कि शिक्षित वर्ग में आते हैं। इसके लिये हमने उन्हें उनके शहर से दूर शिक्षा और रोजगार की तलाश में भटकने के लिये मजबूर कर दिया है या उनके सामने ऐसी तनाव की स्थिति पैदा कर दी है जिससे उन्हें देश में चल रही वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों के बारे में सोचने का समय भी ना मिल सके और अक्सर वोट डालने का भी।
अनपढ़ का ज्ञान जो कि सिमित है और पढे़ लिखे का अभिमान जो कि असीमित है दोनों ही हमारे लिये फायदे का कारण है।
अब मैं तीसरी उस बात पर ज्यादा तवज्जो दे रहा हॅं जो मेरे लिये सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा है- धर्म
क्या धर्म का काम जोडने का काम है या तोड़ने का घ् शायद हमारी जनता को ये समझ में नहीं आया पर हमें समझ में आ गया है।
हम धर्म का मु्द्दा अपने वोट बैंक के लिये अहम मानते हैं तभी तो हमने वर्षां से अयोध्या विवाद पर कोई सुनवाई नही की और जब सुनवाई हुई तो वह भी ऐसी बात सामने आई जिससे फिर राजनीति का चुल्हा जल सके।
क्या हमने कभी इस बात का ब्यौरा दिया है कि हमारी राजनीतिक पार्टी में कितने मुसलमान हैं, कितने हिन्दू हैं या अन्य जाति धर्म सम्प्रदाय के लोग हैंए जो कि मिलजुलकर काम करते हैं - बिल्कुल नहीं।
यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारे धर्म रूपी राजनीतिक मुद्दों का क्या होगा जिससे हमारी राजनीति की दुकान चलती है।
इस देश के लोगों के पास ये सोचने का समय भी नहीं है कि हम नेता (विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय) संगठित होकर एक राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं और अपने काले कारनामों को एक साथ आगे बढ़ा सकते हैंए तो क्या ये देश की जनता, जो कि विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय से ताल्लुक रखती है, वह अपने देश की शान्ति और सुरक्षा के लिये संगठित होकर आगे नहीं बढ़ सकती
पर हम ऐसा कभी होने नहीं देंगेए यही तो हमारी जीत की निशानी है।
हमारी राजनीति की दुकान इन्ही मुद्दों पर बन रही है। जिससे हमारी कथनी और करनी में फर्क साफ दिखाई देता है और यही एक सफल नेता की निशानी है।
***Tarun***
मैं आज बहुत गर्व महसूस कर रहा हू क्यों कि मुझे मेरी कथनी और करनी में फर्क दिखाई दे रहा है। मैं वो हरगिज नहीं करना चाहता जो मैं कहता हॅ। अब आप इस बात पर ज्यादा सोच विचार मत करिये कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हॅं। मैं नेता बनना चाहता हॅ....। शायद यही न्यूनतम् योग्यता है। मैं अब उन बातों को कहना भी सीख गया हू जिन्हें हमारे नेता कभी भूल कर भी हटाना नहीं चाहते। देखो मैंने कहना भी सीख लिया है -
हम गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि को जड़ से हटाना चाहते हैं (पर हम तो शायद उस पेड़ को भी हटाना नहीं चाहेंगे जिसके जड़ हटाने की बात हम कह रहे हैं) मैं अब यह पूर्णतया कह सकता हू कि मैंने एक सफल नेता की न्यूनतम् योग्यता अर्जित कर ली है - मेरी कथनी और करनी में फर्क है।
पर असल में अब मुझे उन बातों पर ध्यान देना होगा जिससे मैं एक सफल नेता बन सकूं जो अपनी पार्टी के काम आये ना कि देश और समाज के लोगों के। मुझे एक सफल नेता बनने के लिये मूलभूत मुद्दों पर ज्यादा जोर देना होगा-
.money (बाप बढ़ा ना भैया सबसे बढ़ा रूपया)
.vote bank (अनपढ़ का ज्ञान पढे़ लिखे का अभिमान)
.religion (वोट पाने का एक आसान और अहम रास्ता)
मेरे लिये पैसा पाने का लालच उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की वोट पाने का, पैसा मुझे वोट दिला सकता है पर वोट पैसा नहीं।
इसलिये तो मैं पॉस्को, वेदान्ता आदि बड़ी कम्पनियों को भविष्य में और लाभ दिलाने की सोच रहा हू। उसके लिये चाहे मुझे अपनी आम जनता से ही, जिसे हमारे वर्तमान नेता ने माओवादी कहा है युद्ध ही क्यों ना करना पडे़। भविष्य में यदि मैं उन्हें देशद्रोही भी कहना चाहूं तो मुझे कोई हर्ज नहीं।
यह माओवादी रूपी आदिवासी मेरे लिये बहुत फायदे का है। एक तरफ जहां अधिकतर लोग जो कि सिर्फ इलैक्ट्रोनिक मीडिया या अन्य बातों को तवज्जो देते हैं और ये मान लेते हैं कि हमने जो वॉर अगेन्सट नक्सलाईट छेड़ा है वह जायज हैए और हमारा वोट बैंक बढ़ाने मं एक सकारात्मक पहलू है। दूसरी तरफ जो वोट हमारे विरूद्ध नक्सलाईटस के पास है वह वोटिंग पोल के दौरान सामने कदापि नहीं आ सकता क्यों कि हमने कठपुतलियों का एक ऐसा बन्दूकी बेड़ा(आर्मी) सामने खडा़ कर दिया है जो हमारे लिये डिफेन्सिव और उनके लिये ऑफेन्सिव साबित हो रहा है। ये बन्दूकी बेड़ा हमारे लिये कारगर साबित हो रहा है। एक तरफ वहां के आदिवासियों को (जिसे अब जनता हमारी आवाज में नक्सलाईट पुकारती है) अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने में मुश्किल पैदा हो रही है वहीं दूसरी तरफ बन्दूकी कठपुतलियां और आदिवासियों के बीच युद्ध के दौरान बन्दूकी बेडे़ के जवान मारे जा रहे हैं उससे आम जनता में आदिवासियों के प्रति आक्रोश और तेज हो रहा है और हमारा नक्सलाईट रूपी आदिवासी कथन सत्य होता दिखाई दे रहा है।
हम उन मतदाताओं पर ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं जो कि हमने गरीब, असाक्षर और कमजोर बनाये हैं क्यों कि वही तो हमारे देश के जटिल राजनीतिक मुद्दे हैं जो कि हमें राजनीति करने में मदद करते है।
कोई पागल नेता ही उन मुद्दों को देश से मिटाना चाहेगा... जिसको मिटाने का संकल्प हम हर समय लेते हैं। हमें उन मतदाताओं से वोट की अपेक्षा नहीं है जो कि शिक्षित वर्ग में आते हैं। इसके लिये हमने उन्हें उनके शहर से दूर शिक्षा और रोजगार की तलाश में भटकने के लिये मजबूर कर दिया है या उनके सामने ऐसी तनाव की स्थिति पैदा कर दी है जिससे उन्हें देश में चल रही वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों के बारे में सोचने का समय भी ना मिल सके और अक्सर वोट डालने का भी।
अनपढ़ का ज्ञान जो कि सिमित है और पढे़ लिखे का अभिमान जो कि असीमित है दोनों ही हमारे लिये फायदे का कारण है।
अब मैं तीसरी उस बात पर ज्यादा तवज्जो दे रहा हॅं जो मेरे लिये सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा है- धर्म
क्या धर्म का काम जोडने का काम है या तोड़ने का घ् शायद हमारी जनता को ये समझ में नहीं आया पर हमें समझ में आ गया है।
हम धर्म का मु्द्दा अपने वोट बैंक के लिये अहम मानते हैं तभी तो हमने वर्षां से अयोध्या विवाद पर कोई सुनवाई नही की और जब सुनवाई हुई तो वह भी ऐसी बात सामने आई जिससे फिर राजनीति का चुल्हा जल सके।
क्या हमने कभी इस बात का ब्यौरा दिया है कि हमारी राजनीतिक पार्टी में कितने मुसलमान हैं, कितने हिन्दू हैं या अन्य जाति धर्म सम्प्रदाय के लोग हैंए जो कि मिलजुलकर काम करते हैं - बिल्कुल नहीं।
यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारे धर्म रूपी राजनीतिक मुद्दों का क्या होगा जिससे हमारी राजनीति की दुकान चलती है।
इस देश के लोगों के पास ये सोचने का समय भी नहीं है कि हम नेता (विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय) संगठित होकर एक राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं और अपने काले कारनामों को एक साथ आगे बढ़ा सकते हैंए तो क्या ये देश की जनता, जो कि विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय से ताल्लुक रखती है, वह अपने देश की शान्ति और सुरक्षा के लिये संगठित होकर आगे नहीं बढ़ सकती
पर हम ऐसा कभी होने नहीं देंगेए यही तो हमारी जीत की निशानी है।
हमारी राजनीति की दुकान इन्ही मुद्दों पर बन रही है। जिससे हमारी कथनी और करनी में फर्क साफ दिखाई देता है और यही एक सफल नेता की निशानी है।
***Tarun***
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
सैनिक नेतृत्व होने के बाद भी प्रदेष के सैनिकों के हालातों में कोई सुधार आया है एैसा नहीं कहा जा सकता। प्रदेष में भाजपा के सत्ता में आते ही कई आवाजें देहरादून जाते जाते दम तोड़ गयी इनमें राज्य आन्दोलनकारियों की वेदना सबसे प्रमुख थी। प्रदेष में सैकडों सैनिक परिवारों की स्थिती आज भी जस की तस बनी हुई है। अल्मोड़ा जिले के हवालबाग ब्लॉक निवासी 84 वर्शीय बच्ची ंिसंह की स्थिती सैनिक परिवारों की दासतां बयां करती है। आजादी के पहले से ही देष के लिए कई जंग लड़ चुके इस सैनिक की बूढी आंखे अब पथरा गयी है। भारतीय सैनिक नं0 255232 सैपर यूनिट 1 टी.टी.सी.आर.आई.ई. में 20 मार्च 1943 से 1947 के जून माह तक सेवा देते रहे। इस दौरान उन्होंने द्वितीय विष्व युद्ध में भाग लिया और वर्मा स्टार वार से सम्मानित भी हुए। इसके पष्चात इस सैनिक ने 1962 में पुनः 1962 में देष के लिए चीन से युद्ध किया वहंी 1965 में यह सैनिक अपने परिवार से दूर देष के लिए पाकिस्तान से और पुनः बांगलादेष से लड़ा। इस दौरान पुनः इसे वार मैडल से सम्मानित किया गया। द्वितीय विष्व युद्ध की विभीशिका झेल चुके इस सैनिक को आज नाममात्र की पेंषन पर अपने परिवार का गुजार करना पढ़ रहा है। गांव में अपने टूटे मकान में रहने को मजबूर इस सैनिक को अपने इलाज से लेकर तमाम चीजों को लेकर अपने सैनिक सेवानिवृत्त पुत्र पर निर्भर है। उक्त सैनिक का कहना है कि यदि उसे उसे सरकार ने जंगी पंेषन और एक भू-खण्ड दिया होता तो उसके जीवन में परेषानीयां कुछ कम हो जाती । अल्मोड़ा जिले के हवालबाग ब्लॉक स्थित नाकोट गांव के पोस्ट बर्षीमी निवासी बच्ची सिंह के परिवार ने अनेक कश्ट झेले। इस दौरान उनके पुत्र रवीन्द्र ंिसंह द्वारा दिल्ली के रक्षा मंत्रालय , स्वंय देष के राश्ट्रपति एवं रक्षा मंत्रीयों से लेकर प्रदेष के सभी सैनिकों से सम्बंधित कार्यालयों के चक्कर काटे लेकिन हर जगह से उन्हें निराषा ही हाथ लगी। हर जगह से एक ही जवाब आया कि एक पेंषन पाने वाले को दूसरी पेषन पाने का अधिकार नहीं है। अभावग्रस्त सैनिक बच्ची सिंह जो उम्र के अंतिम पड़ाव पर है उसका साफ तौर पर मानना है कि एक गलतफहमी के चलते यह सब हो रहा है सरकार आज विकलांगों,वृद्धों व अन्य वंचितांे को जो पेंषन दे रही है वह वास्तव में पेंषन ही एक आर्थिक सहायता है ठीक ऐसी ही आर्थिक सहायता द्वितीय विष्वयुद्ध के युद्ध सेनानियों को भी दी जाती रही है,उनके अनुसार द्वितीय विष्वयुद्ध के सैनिकों को दो-दो पंेनषने दी जाती रही है, लेकिन बच्ची सिंह इससे वंचित रहने वाले षायद प्रदेष के पहले सैनिक होंगे। उनका यह भी आरोप है कि तमाम सरकारी कार्यक्रमों में दिखावे के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के विशय में बड़ी -बडी बातें कही जाती रही है या यूं कहें कि उनकी प्रदर्षनीयां लगाई जाती रही है लेकिन एक छोटी सी पेन्यूरी पंेषन और तराई में एक छोटे सें भू-खण्ड की मांग करते करते उनका पूरा जीवन बीत गया लेकिन सरकार के किसी कार्यालय से उन्हें कोई संतोशजनक जबाव नहीं मिला। आज बच्ची सिंह कुछ कहने और भाग दौड़ करने में असमर्थ है ,उनकी पत्नी का बहुत पहले देहावास हो चुका है, फौज से सेवानिवृत्त अपने पुत्र के साथ वे अपना जीवन बिताते है उनके पुत्र रवीन्द्र सिंह अब भी अपने पिता के टूटे हुए मकान और तमाम युद्धों के मैडलों कों लेेकर सरकारी कार्यालयों के चक्कर काट रहे है। इस उम्मीद के साथ कि षायद कभी कोई हाथ मदद के लिए उनकी ओर बढे। इधर उत्तराखण्ड सरकार के समाज कल्याण विभाग से भी उन्हें साफ तौर पर कह दिया गया है कि प्रदेष सरकार के वर्श 2002 में निकाले गये षासनादेष के अनुसार द्वितीय विष्व यु़द्ध पेंषन के आवेदकों को अब पंेषन देना बंद किया जा चुका है। पुश्कर बिश्ट अल्मोड़ा
शनिवार, 13 नवंबर 2010
"जनता पर युद्ध के खिलाफ" कन्वेशन
विभिन्न संगठनों की ओर से अल्मोड़ा के सेवाय होटल में 31 अक्टूबर को आयोजित "जनता पर युद्ध के खिलाफ" कन्वेशन की शुरूआत करते हुए नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह ने सभी अतिथियों का परिचय कराया। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि यहा अघोषित आपातकाल की स्थिति बन गई है। जहां जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना जुर्म बन गया है और शांतिपूर्वक आन्दोलन कर रहे आन्दोलनकारियों पर बर्बरता की जा रही है।
इन्कलाबी मजदूर केन्द्र के खीमानन्द ने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर आदिवासियों को अपना दुश्मन मानकर सरकार उन पर युद्ध थोप रही है तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों से बेदखल कर रही है। देश में जिस तरह से समाजवाद तथा कम्युनिस्ट शब्द को बदनाम कर दिया गया है उससे इसके पीछे का रचा जा रहा षडयन्त्र अब साफ हो रहा है। यह युद्ध केवल आदिवासी इलाकों की क्रान्तिकारी शक्तियों का ही दमन नहीं है अपितु यह पूरे भारत में काम कर रही क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन है। इसके खिलाफ एकजुट होकर जन कार्यवाही करने की जरूरत है। जिस तरह से पूंजीवाद संकट की ओर जा रहा है उसका प्रतिवादी होना अपरिहार्य है। इस स्थिति में जनता का दमन बढ़ेगा। जिसके लिये हमें तैयार रहना होगा तथा जनवादी संगठनों, न्याय पसंद लोगों एवं वुद्धिजीवियों को इसका विरोध करना होगा। क्रांति मजदूर वर्ग के नेतृत्व मे होती है और हमें मजदूर वर्ग को संगठित करके देश में व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को मुकाम तक पहुचाना होगा।
,राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के एड0 दीवान धपोला ने कहा कि ग्रीन हंट, सलवा जुडूम का विरोध करने वाले एवं जन सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाले लोगांे के प्रति सरकार तथा विपक्ष जो कार्यवाही कर रहा है उसके खिलाफ यह कार्यक्रम एक आवश्यकता है। आज इस तरह के कन्वेन्शन द्वारा अगला रास्ता तैयार किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस भूमिका को भी हम लोगांे ने ही निभाना है। आज के हालातों के अनुसार लोग इन परिस्थितियों से जी चुरा रहे हैं। वह पैसिव हो रहे हैं। माना की 60 साल का बुजुर्ग कुछ नहीं कर सकता लेकिन वह अन्याय के खिलाफ लड़ रही युवा पीढ़ी को मोरल सपोर्ट तो दे सकता है। हम अप्रत्यक्ष रूप से नई पीढ़ी की मदद कर सकते हैं। लेकिन नहीं। आज जो समाज के लिये काम करता है उसकी दुगर्ति उसके परिवार तथा उसके दोस्तों से ही शुरू हो जाती है। उत्तराखण्ड राज्य यहां की जनता ने बड़ी मेहनत से प्राप्त किया है। लेकिन विगत दस सालों में यहां पुलिस फोर्स की संख्या बढ़ी है आईएएस की संख्या बढ़ी है। बजट का अधिकांश भाग टीए डीए में ही जा रहा है। पहाड़ों में आईटीबीपी एसएसबी के मुख्यालय बन गये लेकिन जनता को मिलने वाली सुविधायें नहीं बढ़ी। कुछ साल पहले संघर्ष करने वाले लोग भी थे तथा उनके मददगार भी थे। लेकिन आज परिस्थितियां इसके विपरीत हैं। हमें यह सोचना चाहिये कि हम किस तरह से सोसिलिस्टों की मदद के लिये आगे आ सकते हैं।
आरडीएफ के प्रदेश महासचिव केसर राना ने कहा कि आज समय जिस दौर में है उस
दौर में पूरा भारत एक ज्वालामुखी पर बैठा है। देश मंे उत्पीड़न की सीमायें तेज हो रही है। कॉरपोरेट जगत जो चाह रहा है शासक वर्ग वही कर रहा है। छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन इलाकों में वेदान्ता तथा पास्को जैसी कम्पनियों ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया है। कमीशन पाने के लिये शासक वर्ग कॉरपोरेट जगत की सेवा कर रहा है। यह खनिज प्रदेशों में खास तौर से देखा जा सकता है। जो उनके खिलाफ बोल रहा है उसे देशद्रोही बताया जा रहा है। अभी कुछ दिनों पूर्व कश्मीर मुद्दे पर अरून्धती रॉय ने अपना वकत्व्य जारी किया और तमाम शासक वर्ग के आंखों की किरकिरी बन गई। जो लोग कश्मीर या माओवादियों के समर्थन में बोल रहे हैं उनका रास्ता जेलों की ओर जा रहा है। देश में बेरोजगारी, युवाओं के सवालों को अनदेखा किया जा रहा है। जो लोग बंगाल, छत्तीसगढ़ या झारखण्ड में लड़ रहे हैं उन्होंने लड़ाई को ही जारी नहीं बल्कि लड़ाई के पैमाने को भी बदला है। आज विचारों को भी सेंसर किया जा रहा है। यदि कोई मार्क्स, लेनिन, लोहिया, जेपी, माओ के विचारों को मानता है तो हर किसी को किसी भी विचार को मानने की आजादी होनी चाहिये।
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के गोविन्द लाल वर्मा ने कहा कि मैं तो यह समझता हू कि
इस देश की सत्ता गोरी चमड़ी की जगह काली चमड़ी वालों के हाथ में आ गई है। हमें केवल राजनैतिक आजादी मिली सामाजिक नहीं। तमाम लोग मताधिकार का प्रयोग करके शासन तो बनाते हैं लेकिन शासक नहीं हो पाते। वास्तव में सत्ताधारी वह हैं जो अपनी पत्नी को 10 करोड़ की कोठी उपहार में दे सकते हैं या अपने बच्चे के जन्मदिन पर हवाई जहाज खरीद सकते हैं। जिसके दिन में तड़पन आती है वहीं अपना आक्रोश प्रकट कर सकता है। जब जनता के हक हकूकों की बात कहो तो शासक वर्ग कुचलने के लिये आ जाता है। जिस बात के लिये मध्य भारत तथा उत्तर पूर्वी भारत के लोग लड़ रहे हैं वो दमन से और भी अधिक बढे़गा।
दौर में पूरा भारत एक ज्वालामुखी पर बैठा है। देश मंे उत्पीड़न की सीमायें तेज हो रही है। कॉरपोरेट जगत जो चाह रहा है शासक वर्ग वही कर रहा है। छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड इसके जीते जागते उदाहरण हैं। इन इलाकों में वेदान्ता तथा पास्को जैसी कम्पनियों ने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया है। कमीशन पाने के लिये शासक वर्ग कॉरपोरेट जगत की सेवा कर रहा है। यह खनिज प्रदेशों में खास तौर से देखा जा सकता है। जो उनके खिलाफ बोल रहा है उसे देशद्रोही बताया जा रहा है। अभी कुछ दिनों पूर्व कश्मीर मुद्दे पर अरून्धती रॉय ने अपना वकत्व्य जारी किया और तमाम शासक वर्ग के आंखों की किरकिरी बन गई। जो लोग कश्मीर या माओवादियों के समर्थन में बोल रहे हैं उनका रास्ता जेलों की ओर जा रहा है। देश में बेरोजगारी, युवाओं के सवालों को अनदेखा किया जा रहा है। जो लोग बंगाल, छत्तीसगढ़ या झारखण्ड में लड़ रहे हैं उन्होंने लड़ाई को ही जारी नहीं बल्कि लड़ाई के पैमाने को भी बदला है। आज विचारों को भी सेंसर किया जा रहा है। यदि कोई मार्क्स, लेनिन, लोहिया, जेपी, माओ के विचारों को मानता है तो हर किसी को किसी भी विचार को मानने की आजादी होनी चाहिये।
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के गोविन्द लाल वर्मा ने कहा कि मैं तो यह समझता हू कि
इस देश की सत्ता गोरी चमड़ी की जगह काली चमड़ी वालों के हाथ में आ गई है। हमें केवल राजनैतिक आजादी मिली सामाजिक नहीं। तमाम लोग मताधिकार का प्रयोग करके शासन तो बनाते हैं लेकिन शासक नहीं हो पाते। वास्तव में सत्ताधारी वह हैं जो अपनी पत्नी को 10 करोड़ की कोठी उपहार में दे सकते हैं या अपने बच्चे के जन्मदिन पर हवाई जहाज खरीद सकते हैं। जिसके दिन में तड़पन आती है वहीं अपना आक्रोश प्रकट कर सकता है। जब जनता के हक हकूकों की बात कहो तो शासक वर्ग कुचलने के लिये आ जाता है। जिस बात के लिये मध्य भारत तथा उत्तर पूर्वी भारत के लोग लड़ रहे हैं वो दमन से और भी अधिक बढे़गा।
सोमनाथ सांस्कृतिक संगठन के मदन मोहन सनवाल अपनी बात को इस गीत के ने माध्यम से व्यक्त किया।
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो हो
नौजवानों जागो हो, बुद्धिमानों जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवानों जागो हो।
बिहार झारखण्ड और उड़ीसा, सीआरपीएफ दमन करे लूटती पुलिस
घर-घर कर दिये तबाह नौजवानों जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
जल जंगल की जो बात करेगा, पुलिस फौज के हाथ मरेगा
जनता हो गई परेशान, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान नौजवान जागो हो।
रोजगार खाना नहीं मिलता, घर घर जा जनता को लूटते लूट मची है आज,
नौजवान जागो हो भारत देश में घुस गये रे जवान नौजवान जागो हो।
भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
जल जंगल की जो बात करेगा, पुलिस फौज के हाथ मरेगा
जनता हो गई परेशान, नौजवान जागो हो
भारत देश में घुस गये रे बेईमान नौजवान जागो हो।
रोजगार खाना नहीं मिलता, घर घर जा जनता को लूटते लूट मची है आज,
नौजवान जागो हो भारत देश में घुस गये रे जवान नौजवान जागो हो।
निर्दोषों को पकड़ ले जाते, मुठभेड़ बताकर खुद मार के आते कुचक्र चलना है आज,
नौजवान जागो हो भारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
खून ए जिगर से धरती के लालों, धरती को लाल बनाने वालों ले लो लाल सलाम,
नौजवान जागो होभारत देश में घुस गये रे बेईमान, नौजवान जागो हो।
परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कमलेश ने कहा कि जनता के खिलाफ सरकार पिछले कई सालों से सरकार आदिवासी इलाकों में चला रही है। सरकार के लिये यह विकास के लिये आवश्यक कत्लेआम है। पूंजीपतियों को फर्क नहीं पड़ता कि उनके लिये कितना कत्लेआम हो रहा है। यह उनके लिये कोई अनोखी चीज नहीं है। हम लोगों को समझना होगा कि यह झारखण्ड, उड़ीसा या छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि पूरे भारत की मेहनतकश जनता पर थोपा गया युद्ध है। सरकारों ने यह साफ कर दिया है कि वह अमेरिका में बैठे अपने रिश्तेदारों के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन इसका व्यापक प्रतिरोध नहीं हो रहा है। अगर इस बडे़ युद्ध को रोकना है तो श्रम को संगठित करना होगा। तभी हम विकास के उस मॉडल की ओर बढ़ पायेंगे जहां मजदूर विकास का प्रणेता होगा।
रचनात्मक शिक्षक मण्डल की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डा0 कपिलेश भोज ने कहा कि आज हम जिस दौर में ऑपरेशन ग्रीन हंट की बात कर रहे हैं उसे हमें व्यापक पहलू के स्तर तक समझना होगा। उन्होंने कहा कि 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के बाद लूट का नया आयोजन हुआ। हम 1947 को पूंजीवाद के नये चरण के रूप में देख सकते हैं। लेकिन दुनिया में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि श्रमिकों के दमन का विकल्प न सोचा गया हो। सर्वप्रथम कार्लमार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद का उपचार क्या है। दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है जो अच्छी जिन्दगी न चाहता हो लेकिन ऐसा नहीं होता। पूंजीवाद का जो विश्लेषण कार्लमार्क्स ने किया वह आपने आप में एक विज्ञान है। वो मुक्तिदायी सिद्धान्त है जो लेनिन ने रूस में और माओ ने चीन में लागू किया।
हिन्दुस्तान का जो वर्ग तकलीफों से जूझ रहा है वो अपने अन्तरविरोधों से भी जूझ रहा है। हमें यह देखना होगा कि जनता की बात करने वाली क्या कोई पार्टी मजबूत हो रही है या नहीं। किसी भी देश में जब दमन या उत्पीड़न होता है तो शासक वर्ग जनता की चेतना को शून्य करने का काम करता है। वही हिन्दुस्तान का शासक वर्ग भी कर रहा है। वर्तमान शिक्षा का ढांचा विद्यार्थियों को व्यक्तिवादी तथा भयग्रस्त बना रहा है। नशाखोरी से युवा वर्ग को नशेड़ी बनाया जा रहा है। जहां भी बदलाव आता है सबसे पहले वहां के शिक्षक, विद्यार्थी तथा वुद्धिजीवी अग्रणी भूमिका में होते हैं।
हिन्दुस्तान का जो वर्ग तकलीफों से जूझ रहा है वो अपने अन्तरविरोधों से भी जूझ रहा है। हमें यह देखना होगा कि जनता की बात करने वाली क्या कोई पार्टी मजबूत हो रही है या नहीं। किसी भी देश में जब दमन या उत्पीड़न होता है तो शासक वर्ग जनता की चेतना को शून्य करने का काम करता है। वही हिन्दुस्तान का शासक वर्ग भी कर रहा है। वर्तमान शिक्षा का ढांचा विद्यार्थियों को व्यक्तिवादी तथा भयग्रस्त बना रहा है। नशाखोरी से युवा वर्ग को नशेड़ी बनाया जा रहा है। जहां भी बदलाव आता है सबसे पहले वहां के शिक्षक, विद्यार्थी तथा वुद्धिजीवी अग्रणी भूमिका में होते हैं।
वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कहा कि जिस तरह से घटनायें हो रही हैं उनमें शान्त रह पाना असम्भव है। उन्होंने कहा कि मैं देश नहीं जानता, मैं लगातार सोचता हूॅं की देश क्या है। चंडीदास ने कहा है कि अगर कोई सत्य है तो वह मानुष सत्य है। लेकिन आज मानव ही मानव का दमन कर रहा है। कोई भी जनता अपना हक चाहती है। जनता जिस तरह से जीना चाहती है वह उसका अधिकार है। कश्मीर की जनता यदि चाहती है कि वह अपने ढंग से जिये तो ये अधिकार उसे क्यों नहीं मिलता ये सोच के परेशानी होती है। क्या आप लोगों ने उत्तराखण्ड इसलिये बनाया कि बिल्डर यहां आकर इसे लूटें। क्या हमने हत्यायें करने वाले लोग तैयार करने के लिये उत्तराखण्ड बनाया। अभी हम 94 किमी0 की यात्रा करके यहां पहुॅंचे हैं तो हमने देखा की पहाड़ जगह जगह से टूट गया है। जनता पर युद्ध कबसे शुरू हुआ। बिरसा मुण्डा भी जनता के युद्ध में शामिल था, भगत सिंह भी जनता के लिये लड़ा। हमारी दोस्त अरून्धती रॉय कहती है कि जिनका विकास हो रहा है उनसे पूछो। अगर गौर से अपने चारों और दिखेगा तो आपको विस्थापन दिखेगा जो युद्ध की पहली निशानी है। पंजाब, बिहार में धरपकड़ शुरू हुई है अब यहां भी होगी। पूर्वाेत्तर में केरल की फौज, उड़ीसा में पंजाब की फौज तथा झारखण्ड में और कहीं की फौज भेजकर अपने को अपनों के खिलाफ लड़ाया जा रहा है। और यह क्या नाम रखे गये हैं कोबरा स्कॉर्पियन kसारा चक्कर खनिजों का है झारखण्ड और आसपास के इलाकों में 4 ट्रिलियन बाक्साइट है। जिससे एक टन एल्यूमिनियम बनाने के लिये 1टन पानी, बेशुमार बिजली तथा बिजली के लिये बांध बनाने की आवश्यकता पडे़गी। जिससे बाद में हथियार बनायें जायेंगे। अब हमें तय करना है कि क्या हम सिर्फ हथियारों के लिये यह कीमत चुकायेंगे। भगवान ना करे कल अगर उत्तराखण्ड में भी कोई खनिज निकल आयेगा तो यहां भी यह सब शुरू हो जायेगा। पी चिदम्बरम गृह मंत्री बनने से पहले वेदान्ता के स्लीपिंग डायरेक्टर थे। वो साल में केवल दो मीटिंग अटैण्ड करते थे। जिसके लिये उन्हें 28 लाख रूपये मिलते थे। गृहमंत्री बनने के बाद उसने इस्तीफा दे दिया। जो लोग सोचते हैं कि जनता को ज्यादा समय तक मूर्ख बनाया जा सकता है तो वे सबसे बडे़ मूर्ख हैं। पंजाब तथा देश के अन्य हरित क्रांति वाले राज्यों में किसानों ने आत्महत्यायें की हैं। चिदम्बरम तो यह भी कहत है कि देश की 85 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में आ जाये। अब कोई तुक तर्क ताल नहीं रह गया है। मुझे याद है शराब माफियाओं का विरोध कर रहे पत्रकार उमेश डोबाल की हत्या हुई थी। लेकिन शराब माफिया आज भी सक्रिय है। इलाहाबाद की सामाजिक कार्यकर्ता सीमा काफी समय से रिमांड पर चल रही है। उसे हर 15 दिन की रिमांड समाप्त होने के बाद फिर रिमांड पर ले लिया जाता है। उसका पति विश्व विजय भी गिरफतार कर लिया गया। कॉमरेड आजाद, हेम पांडे की हत्या कर दी गई। इलाहाबाद में अब कोई सीमा का नाम नहीं लेता हो सकता है यहां भी कोई प्रशान्त राही का नाम न लेता हो। अब तो सरकार ने जनता के लिये आन्दोलन करने वालों के खिलाफ प्रचार भी शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि माओवादी हर साल 15 हजार करोड़ रूपये की वसूली कर रहे हैं। तमाम समाचार पत्रों के माध्यम से प्रचार किया जा रहा है। जो विद्रोह कर रहा है वह राजद्रोही बताया जा रहा है। मैं तो कहता हू कि यह राजपत्रित आतंकवाद है। आपको एक वर्दी मिली है एक बंदूक मिली है और बस गोलियां बरसा रहे हैं। आज इंटरनेट से राई रत्ती जान सकते हैं। बीते दिनों होंडा कम्पनी के मजदूरों पर लाठीचार्ज हुआ। अब यह आग फूट रही है लेकिन मजदूर अभी एक सूत्र में नहीं हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा सभी आपस में लड़ रहे हैं। लेकिन जब जनता की बात आती है तो ये सब एक हो जाते हैं। तो यह बहुत जरूरी है कि हम भी एक सूत्र में रहे। वो एक दो चार को मार सकते हैं। पचास सौ को बंद करा सकते हैं। लेकिन पूरे देश की आबादी को नहीं। इसलिये अब वे तरह तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। युद्ध में सब होता है और यह युद्ध है। लोग अब यह बात जान रहे हैं। वो जानना चाहते हैं ऐसा कौन सा रास्ता है जिससे विकास का रास्ता निकल सकता है।
उत्तराखण्ड वन पंचायत सरपंच संगठन के गोविन्द सिंह मेहरा ने अपनी बातों को अपने ही चुटीले अंदाज में कहते हुए कहा कि हमने लूटतंत्र को लोकतंत्र मान लिया है। सरकार कह रही है हम पानी बचाने के लिये गांव गांव में नदियों पर चैक डैम बना रहे हैं। उसे सरकार की उपलब्धि बताया जा रहा है लेकिन चैक डैम गांव वाले अपने अपने घराट चलाने के लिये कई वर्षाें से बना रहे हैं। सरकार ने हमारी जल संस्कृति को नल संस्कृति तथा वन संस्कृति को धन संस्कृति में बदल दिया है। पेड़ लगाने के नाम पर पैसे लिये जा रहे हैं। हमें यह देखना होगा कि हम इन 10 सालों में कहां पहुॅंच गये हैं। जिन खेतों में कभी गेंहूॅं, धान होते थे आज वो भूमि कंकरीट के जंगल से पटी चुकी है। जल, जंगल और जमीन से जनता के अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं।
क्रान्तिकारी लोक अधिकार संगठन के पीपी आर्या ने कहा कि भारत का पूंजीपति वर्ग जनता का दमन कर रहा है तथा जनता के लिये लड़ने वाले लोगों को राक्षस तथा अलगाववादी बताकर उन्हें भटका रहा है। अब देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यह युद्ध फैल रहा है और पुलिस दमन लगातार बढ़ता जा रहा है। लेकिन हमें यह देखना है कि जो हो रहा है क्या जनता उसका प्रतिकार कर रही है। क्या हमारा नेतृत्व जनता को गोलबंद कर सकता है या नहीं। हम शासक वर्ग को तानाशाह कह सकते हैं गालियां दे सकते हैं लेकिन हमें अपनी कमजोरियां नहीं दिखती। हमारे देश में एक टोकरा भर के क्रान्तिकारी दल हैं लेकिन हम एक दूसरे की बात नहीं सुनते। यह टटपूंजियां संकीर्णता क्यों आती है। क्या यह किसी की निजी ठेकेदारी है। हमें सबसे पहले अपनी कमजोरियां तलाशनी चाहिये। शासक वर्ग इतना बदहवास हो गया है कि वह आन्दोलन कर रही जनता पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज करवा रहा है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि वह अनजाने में जनता को लाठी उठाना सीखा रहा है। जवाहर लाल नेहरू तथा मनमोहन सिंह को खड़ा कर देखिये। दोनों का बौनापन आपको दिख जायेगा। हमारी देश के जो संचालन केन्द्र हैं व्यापारिक केन्द्र हैं वहां क्रान्तिकारी नहीं हैं। हमें इन केन्द्रों पर भी सक्रियता बढ़ानी होगी। एक सच्चे योद्धा और मेहनतकश के रूप में हमारी जिम्मेदारी क्या है। हमें जनता को एक सूत्र मंे पिरोना होगा। देश में 40 करोड़ मजदूर हैं। जिन्हें हमें एक सूत्र में पिरोना होगा। पंूजीपतियों ने पहला हमला मजदूर पर ही क्यों किया। क्यों कि वे जानते थे कि मजदूर वर्ग संगठित हो सकता है। मजदूरों के बाद दूसरा हमला किसानों पर हुआ। सिंगूर, कलिंगनगर में जनता लड़ रही है। जो नाभि क्षेत्र है जो संचालन केन्द्र हैं वहां हमारी पकड़ कमजोर है। हमें नये नये संचालन केन्द्रों पर अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी। क्यों कि क्रान्तिकारी बरगद की पूजा नहीं करता वह नये भ्रूण को सींचता है।
राजनैतिक बंदी रिहाई कमेटी के पान सिंह ने कहा कि समाज के मजदूर वर्ग के बीच काम किये जाने कि जरूरत है। उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ में दमन किया जा रहा है लेकिन भ्रूण रूप में ही सही जनता की सत्ता का काम चल रहा है। उन्होंने दिखा दिया है कि जनता कभी याचक नहीं होती। लेकिन सरकार की इस भ्रूण को कुचलना चाहती है। उत्तराखण्ड में भी जब जब विकल्प की बात आई है दमन शुरू हुआ है। ग्रीन हंट के खिलाफ जनता की लड़ाई पूरे देश में चल रही है। राज्य में आपदा के समय जनता को देने के लिये जमीन नहीं है लेकिन टाटा, मित्तल को प्रदेश में उद्योग लगाने के लिये आमंत्रित किया जा रहा है।
आरडीएफ के केन्द्रीय महासचिव राजकिशोर ने कहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था यदि अन्यायपूर्ण है तो वह जनता पर युद्ध है। ब्रिटिशकाल से ही यह ढांचा ऐसा खड़ा किया गया है। भूमण्डलीकरण उदारीकरण के फलस्वरूप शोषण का विस्तार हो रहा है। भूमि का विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीकरण हुआ है। जनता का प्रतिरोध भी बढ़ रहा है। आज नक्सलबाड़ी का आन्दोलन 22 राज्यों में फैल गया है। जो आन्दोलन नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ वह माओवाद के रूप में फैल रहा है। जिसे विरोधी शक्तियां आतंकवाद, बलात्कारी कह कर प्रचारित कर रही हैं ताकि जनता उनसे घृणा करे। यह जनता पर मनोवैज्ञानिक हमला है। आज सैकड़ों लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा रही है कई लोगों को बिना मुकदमे के गिरफतार किया जा रहा है। जहां पर प्रतिरोध हो रहा है वहां लोगों पर न्यायिक एवं कानूनी हमला किया जा रहा है। आज की तारीख में प्रतिवर्ष दो लाख महिलायें प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। हरित क्रांति का नारा देकर नाटक किया जा रहा है। आज हरित क्रांति वाले राज्यांे में ही किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। हजारों लोग बाढ, सूखे की चपेट में आने से मर रहे हैं। क्या आज किसी भी दफतर में बिना पैसे के काम होते हैं। चुनाव की राजनीति हो रही है। जनता का अधिकार तभी तक है जब तक वह वोट नहीं देती। नक्सलबाड़ी का आन्देालन तब शुरू हुआ जब किसान जमींदारों से भूमि प्राप्त करने के लिये लड़े। 1947 के बाद भी ब्रिटिश सामाजिक, आर्थिक, ढांचा हम पर थोपा गया। नक्सलबाड़ी में जमीन के लिये लड़ाई लड़ी गई। लेकिन आज सरकार फौज के द्वारा हमारी जमीन, जंगल, नदियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप रही है। उसके बाद हमारे खनिजों से माल तैयार कर हमें ही बेचा जा रहा है। सरकार कहती है हम विकास कर रहे हैं। लेकिन असल में माओवादी देश के इतिहास को समझते हैं। माओवादियों पर तोहमत लगाई जाती है कि ये हिंसा करते हैं। लेकिन वेा चाहते हैं उत्पादन प्रक्रिया बदली जाये। लेकिन कभी भी शासक वर्ग इस व्यवस्था को बदलने के लिय तैयार नहीं हुआ। अगर हम विदेशों को समृद्ध बनायेंगे तो खुद कंगाल हो जायेंगे। हम वो माल बना रहे हैं जो अमेरिका को पसंद है। सरकार खेत के विकास का साधन नहीं दे सकी और कहती है विकास कर रहे हैं। हमारा कभी भी स्वतंत्र और आर्थिक विकास नहीं हुआ है। उन्हांेने कहा कि संसदीय धारा में लाल झंडे वाले जो लेाग चले गये हैं वो कभी भी कम्यूनिस्ट नहीं कहलाये जायेंगे। लोकतंत्र का पालन फौज भेजकर नहीं किया जा सकता। किसान मजदूरों की शक्ति प्रबल शक्ति है। हमें शासक वर्ग के खिलाफ असहमति तथा असहमत लोगों को एकजुट करना होगा और विरोध की राजनीति को संगठित करना होगा। जनता को मनोवैज्ञानिक ढंग से गुमराह करने की साजिश के खिलाफ समानान्तर आन्दोलन चलाना होगा। अन्यायपूर्ण नीतियों और संसदीय लूट के खिलाफ अपनी ताकत को एक करना होगा। लालगढ़ के 1200 गांवों में जनता की कमेटी कायम है। वो लोग बैठकर सोचते हैं कि गांवों का विकास कैसे होगा। चाहे सड़क का प्रबंध करना है या स्कूल का प्रबंध करना है या चिकित्सालय का प्रबंध करना है। हमारे देश में खेत में काम करने वालों को अकुशल मजदूर कहा जाता है। आज देश में खेती का विकास नहीं हो रहा है। अगर हम देश का विकास करना चाहते हैं तो हमें उस विकास नीति को अपनाना होगा जो जनता का विकास करे। हमें संसदीय प्रणाली की लूट के खिलाफ एकता पैदा करनी होगी। तब जाकर हम जनता पर जो युद्ध चल रहा है उसे ध्वस्त कर सकते हैं।
कन्वेन्शन के मुख्य वक्ता पूर्व आईएएस बीडी शर्मा ने कहा कि माओवाद का हौव्वा फैलाया जा रहा है वह कुछ भी नहीं है। दरअसल बात वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचने के लिये रचे जा रहे षडयन्त्र के खिलाफ आन्दोलित माओवादियों का दमन करने की है। बस्तर में आयरन इंडस्ट्री स्थापित करने के लिये मात्र 6 आदिवासी परिवारों को विस्थापित किया गया। जबकि वहां लाखों लोग निवास करते हैं। इसका कारण यह था कि वहां केवल 6 परिवारों के ही मतदाता पहचान पत्र बने थे। प्राकृतिक संसाधन पहले से ही जनता के थे तो इन पर सरकार का हक कैसे हो गया। जो गलती हिटलर ने की वहीं यहां की सरकार भी कर रही है। हिटलर ने अनेक युद्ध जीते पर सोवियत रूस से नहीं जीत सका। क्यों कि वहां उसकी लड़ाई समाज से थी। यहीं गलती यहां भी दोहराई जा रही है। छत्तीसगढ, झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा में सरकार समाज से लड़ रही है। राज्य की शक्ति कभी भी समाज की शक्ति पर हावी नहीं हो सकती। आदिवासी कभी भी अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे। आदिवासी क्षेत्रों में आजादी से पहले जनता का ही अधिकार था। अंग्रेजों के आगमन के बाद धीरे-धीरे राज्य ने उन पर नियंत्रण करने की कोशिश की। आदिवासी सदियों से अपने बारे में खुद तय करते आ रहे हैं। संविधान लागू होने का दिन आदिवासियों के लिये अंधेरी रात था। आदिवासी अपने झगड़े स्वयं निपटाते हैं। पुलिस तक बहुत कम मामले आते हैं। संविधान के लागू होने के बाद हमारे सभी अधिकार छिन लिये गये। मैं तो कहता हूॅं ग्रामीण भारत को जानबूझकर खत्म किया जा रहा है। यहां तक की मनरेगा में तक किसानों को अकुशल मजदूर बताया गया है।
वरिष्ठ पत्रकार पीसी जोशी ने सारे वक्ताओं की बातों को विस्तार से रखा। ने सारे वक्ताओं की बातों को विस्तार से रखा। उन्होंने कहा कि युवा पीढ़ी को सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हम सभी जनपक्षीय ताकतों को एक होना होगा।
उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के केन्द्रीय अध्यक्ष डा0 शमशेर सिंह बिष्ट ने कार्यक्रम का समापन करते हुए कहा कि जनता पर तरह तरह के जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं। टिहरी बांध का पानी 832 मीटर तक बढ़ा दिया जाता है। यह भी जनता पर थोपा जा रहा एक युद्ध ही है। हमें इसे भी समझना होगा। हमने जनता को एकजुट करना होगा। क्यों कि चिपको आन्दोलन, नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, वन आन्दोलन सहित सभी आन्दोलनों का नेतृत्व जनता ने किया किसी राजनैतिक दल ने नहीं। उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि माओवादी सबसे बडे़ देश भक्त हैं और अपनी जिन्दगी अपना कैरियर अपना परिवार को त्याग करते हुए जनता के बीच में जाकर उनका नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज न्यायप्रिय एवं जनवाद पसन्द लोगों को एकमंच पर लाने की जरूरत है।
बुधवार, 25 अगस्त 2010
सुमगड़
सुमगढ़ की घटना को आज पंद्रह दिन से ज्यादा हो गए हैं । नेताओ के दौरै खत्म हो गए हैं लेकिन इलाके के लोग आज भी दहशत मैं हैं । बिजली पानी की किल्लत तो हैं ही राशन खत्म होने से दिक्कते बड़ गयी है । पनचक्किया तो पहले ही बह गयी थी । इस बार राखी के दिन पुरे इलाके मैं मातम का माहोल छाया रहा सरकार को इससे क्या फर्क पड़ता हैं । मुआवजे का मरहम क्या उन परिवारों की खुशिया लौटा सकता हैं जिनके नौनिहाल इस त्रासदी की भैंट चढ़ गए ।
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