गुरुवार, 25 नवंबर 2010

< हमारी कथनी और करनी में फर्क है <


मैं आज बहुत गर्व महसूस कर रहा हू क्यों कि मुझे मेरी कथनी और करनी में फर्क दिखाई दे रहा है। मैं वो हरगिज नहीं करना चाहता जो मैं कहता हॅ। अब आप इस बात पर ज्यादा सोच विचार मत करिये कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हॅं। मैं नेता बनना चाहता हॅ....। शायद यही न्यूनतम् योग्यता है। मैं अब उन बातों को कहना भी सीख गया हू जिन्हें हमारे नेता कभी भूल कर भी हटाना नहीं चाहते। देखो मैंने कहना भी सीख लिया है -
हम गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि को जड़ से हटाना चाहते हैं (पर हम तो शायद उस पेड़ को भी हटाना नहीं चाहेंगे जिसके जड़ हटाने की बात हम कह रहे हैं) मैं अब यह पूर्णतया कह सकता हू कि मैंने एक सफल नेता की न्यूनतम् योग्यता अर्जित कर ली है - मेरी कथनी और करनी में फर्क है।
पर असल में अब मुझे उन बातों पर ध्यान देना होगा जिससे मैं एक सफल नेता बन सकूं जो अपनी पार्टी के काम आये ना कि देश और समाज के लोगों के। मुझे एक सफल नेता बनने के लिये मूलभूत मुद्दों पर ज्यादा जोर देना होगा-

.money (बाप बढ़ा ना भैया सबसे बढ़ा रूपया)
.vote bank (अनपढ़ का ज्ञान पढे़ लिखे का अभिमान)
.religion (वोट पाने का एक आसान और अहम रास्ता)

मेरे लिये पैसा पाने का लालच उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की वोट पाने का, पैसा मुझे वोट दिला सकता है पर वोट पैसा नहीं।
इसलिये तो मैं पॉस्को, वेदान्ता आदि बड़ी कम्पनियों को भविष्य में और लाभ दिलाने की सोच रहा हू। उसके लिये चाहे मुझे अपनी आम जनता से ही, जिसे हमारे वर्तमान नेता ने माओवादी कहा है युद्ध ही क्यों ना करना पडे़। भविष्य में यदि मैं उन्हें देशद्रोही भी कहना चाहूं तो मुझे कोई हर्ज नहीं।
यह माओवादी रूपी आदिवासी मेरे लिये बहुत फायदे का है। एक तरफ जहां अधिकतर लोग जो कि सिर्फ इलैक्ट्रोनिक मीडिया या अन्य बातों को तवज्जो देते हैं और ये मान लेते हैं कि हमने जो वॉर अगेन्सट नक्सलाईट छेड़ा है वह जायज हैए और हमारा वोट बैंक बढ़ाने मं एक सकारात्मक पहलू है। दूसरी तरफ जो वोट हमारे विरूद्ध नक्सलाईटस के पास है वह वोटिंग पोल के दौरान सामने कदापि नहीं आ सकता क्यों कि हमने कठपुतलियों का एक ऐसा बन्दूकी बेड़ा(आर्मी) सामने खडा़ कर दिया है जो हमारे लिये डिफेन्सिव और उनके लिये ऑफेन्सिव साबित हो रहा है। ये बन्दूकी बेड़ा हमारे लिये कारगर साबित हो रहा है। एक तरफ वहां के आदिवासियों को (जिसे अब जनता हमारी आवाज में नक्सलाईट पुकारती है) अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने में मुश्किल पैदा हो रही है वहीं दूसरी तरफ बन्दूकी कठपुतलियां और आदिवासियों के बीच युद्ध के दौरान बन्दूकी बेडे़ के जवान मारे जा रहे हैं उससे आम जनता में आदिवासियों के प्रति आक्रोश और तेज हो रहा है और हमारा नक्सलाईट रूपी आदिवासी कथन सत्य होता दिखाई दे रहा है।

हम उन मतदाताओं पर ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं जो कि हमने गरीब, असाक्षर और कमजोर बनाये हैं क्यों कि वही तो हमारे देश के जटिल राजनीतिक मुद्दे हैं जो कि हमें राजनीति करने में मदद करते है।
कोई पागल नेता ही उन मुद्दों को देश से मिटाना चाहेगा... जिसको मिटाने का संकल्प हम हर समय लेते हैं। हमें उन मतदाताओं से वोट की अपेक्षा नहीं है जो कि शिक्षित वर्ग में आते हैं। इसके लिये हमने उन्हें उनके शहर से दूर शिक्षा और रोजगार की तलाश में भटकने के लिये मजबूर कर दिया है या उनके सामने ऐसी तनाव की स्थिति पैदा कर दी है जिससे उन्हें देश में चल रही वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों के बारे में सोचने का समय भी ना मिल सके और अक्सर वोट डालने का भी।
अनपढ़ का ज्ञान जो कि सिमित है और पढे़ लिखे का अभिमान जो कि असीमित है दोनों ही हमारे लिये फायदे का कारण है।

अब मैं तीसरी उस बात पर ज्यादा तवज्जो दे रहा हॅं जो मेरे लिये सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा है- धर्म
क्या धर्म का काम जोडने का काम है या तोड़ने का घ् शायद हमारी जनता को ये समझ में नहीं आया पर हमें समझ में आ गया है।
हम धर्म का मु्द्दा अपने वोट बैंक के लिये अहम मानते हैं तभी तो हमने वर्षां से अयोध्या विवाद पर कोई सुनवाई नही की और जब सुनवाई हुई तो वह भी ऐसी बात सामने आई जिससे फिर राजनीति का चुल्हा जल सके।
क्या हमने कभी इस बात का ब्यौरा दिया है कि हमारी राजनीतिक पार्टी में कितने मुसलमान हैं, कितने हिन्दू हैं या अन्य जाति धर्म सम्प्रदाय के लोग हैंए जो कि मिलजुलकर काम करते हैं - बिल्कुल नहीं।
यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारे धर्म रूपी राजनीतिक मुद्दों का क्या होगा जिससे हमारी राजनीति की दुकान चलती है।
इस देश के लोगों के पास ये सोचने का समय भी नहीं है कि हम नेता (विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय) संगठित होकर एक राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं और अपने काले कारनामों को एक साथ आगे बढ़ा सकते हैंए तो क्या ये देश की जनता, जो कि विभिन्न धर्म, जाति, सम्प्रदाय से ताल्लुक रखती है, वह अपने देश की शान्ति और सुरक्षा के लिये संगठित होकर आगे नहीं बढ़ सकती
पर हम ऐसा कभी होने नहीं देंगेए यही तो हमारी जीत की निशानी है।

हमारी राजनीति की दुकान इन्ही मुद्दों पर बन रही है। जिससे हमारी कथनी और करनी में फर्क साफ दिखाई देता है और यही एक सफल नेता की निशानी है।

***Tarun***

1 टिप्पणी:

  1. व्यंग्य का सहारा लेकर अपनी बात रखना भी एक कला है , सुंदर रचना बधाई

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